अन्ना से सबक लें राजनीतिक दल
प्रकाश अस्थाना

पक्ष और विपक्ष में होने का दम भरने वालों को अब अपनी औकात समझ में आ गई होगी। सभी को पस्त करके अन्ना मस्त होकर अपने तयशुदा आंदोलन में जुट गए हैं। वह देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को समूल नष्ट कर पाएंगे या नहीं, यह अभी समय के गर्भ में है, लेकिन इतना तय है कि देश में अन्ना के बहाने एक वैचारिक क्रांति ने जन्म लिया है। उनकी मुहिम से आजादी के बाद कई बातें पहली बार हुईं। मसलन, कोई गैर राजनीतिज्ञ भी इतनी बड़ी ताकत बनकर उभर सकता है, यह अब कल्पना मात्र नहीं रह गया है। ‘मुन्ना भाई’ को बापू नजर आते थे या नहीं, लेकिन इतना तय है कि अन्ना के रूप में केंद्र की यूपीए सरकार को ‘बापू’ नजर आने लगे हैं। यह कोई ‘केमिकल लोचा’ नहीं है, यथार्थ है। जनता को अन्ना के बहाने केंद्र सरकार की कथित पॉवर और उसकी असलियत जानने का मौका भी पहली बार मिला है। और पहली ही बार हुआ कि विपक्ष होने का दम भरने वालों को अपनी औकात मालूम हो गई है।
यह कैसी अजीब स्थिति है कि बिना कोई जुर्म किए सरकार किसी शख्स को जेल में ठूंस देती है। तर्क यह दिया जाता है कि उसकी हरकतों से शांति भंग होने का खतरा है। कानून की तमाम धाराएं उस पर थोप दी जाती हैं। उस पर तुर्रा यह कि कानून अपना काम कर रहा है, सरकार दखल नहीं दे सकती। लेकिन यह क्या? कुछ ही घंटों बाद सरकार फैसला करती है कि अन्ना को बाइज्जत जेल से रिहा किया जाए? सवाल यह उठता है कि अन्ना को बाइज्जत बरी करने वाली सरकार कौन होती है?
अन्ना गिरफ्तार हुए मजिस्टे्रट के आदेश पर, जहां उन्हें शपथ पत्र भरकर अपनी गलती मानने और निजी मुचलके पर छूटने की ‘सुविधा’ प्रदान की गई। हालांकि, कानून में ऐसा प्रावधान है। परंतु जब उस शख्स ने मना कर दिया, तब क्या जरूरत आन पड़ी कि उन्हें बिना कोई कानूनी औपचारिकता के रिहा कर दिया गया? तब उनकी जमानत किसने दी? शपथ-पत्र किसने भरा? कितनी हास्यास्पद स्थिति है...।
एक बानगी और देखिए! केंद्र सरकार अन्ना को वहां से गिरफ्तार करवाती है, जहां वे ठहरे हुए थे। वे उस समय अनशन स्थल पर गए भी नहीं थे, तो शांति कैसे भंग हुई? बहरहाल, उन्हें गिरफ्तार कराया गया, लेकिन कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के दखल के चंद घंटों बाद ही उन्हें रिहा कराने के फरमान जारी हो जाते हैं। कहा जाता है कि वह कहीं भी जाने को ‘स्वतंत्र’ हैं, परंतु अनशन की लिखित इजाजत फिर भी नहीं मिलती। अन्ना अड़ जाते हैं कि अनशन की बिना इजाजत के वह जेल से बाहर नहीं आएंगे। एक बार फिर सत्तारूढ़ नेताओं में खलबली मच जाती है। मंथन का दौर शुरू होता है। अंतत: सरकार को झुकना पड़ता है। कानून सरकार की गोद में बैठा है, इसलिए बिना किसी औपचारिकता के अन्ना बाहर आते हैं। यह सब क्या है? क्या यही हमारी लोकतांत्रिक सरकार है? दूसरे देशों में वह अपनी करतूतों से ‘उपहास’ का पात्र बनती है, दोष मढ़ा जाता है अन्ना पर।
टीम अन्ना पर विदेशी ताकतों के हाथों खेलने का संगीन आरोप लगता है। लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि कुछ ही घंटों बाद खंडन भी आ जाता है। आखिर, इस जलालत के पीछे की साजिश क्या है? सरकार देखे कि विदेशों में भी अन्ना को भारत का दूसरा ‘बापू’ कहा जाने लगा है। इस देश में अब अपने वजूद के लिए बगलें झांकती राजनीतिक पार्टियों को इस मुहिम से सबक लेना चाहिए।
एक अहम सवाल उठता है कि अन्ना की गिरफ्तारी किसके इशारे पर हुई? किसके इशारे पर उन्हें ‘दया का पात्र’ बनाते हुए छोडऩे का फरमान जारी किया गया? कहीं यह समूचा ड्रामा कांग्रेस के युवराज को ‘नायक’ बनाने की कवायद का हिस्सा तो नहीं?
एक नजर विपक्षी दलों की भूमिका पर! लगभग ‘कोमा’ में जा चुका देश का विपक्ष अन्ना की मुहिम देखकर हतप्रभ है। उसकी क्या भूमिका होनी चाहिए, यह सवाल अब प्रासंगिक हो उठा है। एक बार प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने भी विपक्ष की भूमिका पर कटाक्ष किया था, तब विपक्ष ने काफी शोर मचाया था। तब से आज तक वह सिर्फ शोर ही मचाता आ रहा है। संसद में जनहित के कई गंभीर मामलों के दौरान वह ‘लापता’ रहता है। आज यदि देश भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा है, तो उसके लिए जिम्मेदार हमारा विपक्ष ही है। क्या कहीं आपको ‘विपक्ष’ नजर आता है? लानत भेजिए विपक्ष पर कि देश पर राज करने का ख्वाब पाले हुए इन लोगों को एक कम पढ़े-लिखे व्यक्ति ने ‘जनसमर्थन’ का वास्तविक समीकरण समझाया है। न तो उसका राजनीतिक धरातल है, और न ही कोई वोट बैंक। फिर क्या कारण है कि अन्ना के नाम की आंधी पूरे देश में चल रही है?
यह सच है कि अन्ना के जनलोकपाल बिल के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं, लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि 73 साल का एक बूढ़ा भ्रष्टाचार रूपी दानव के खिलाफ जंग लड़ रहा है। इस देश का लगभग हर आम आदमी भ्रष्टाचार से त्रस्त है। हालांकि भ्रष्टाचार का मुद्दा पहले भी राजनीतिक दलों ने उठाया है, क्या उन्हें इतना व्यापक जनसमर्थन मिला? अन्ना की आवाज में ही लोगों को सच्चाई क्यों नजर आती है? इस विषय को गंभीरता से लेते हुए राजनीतिक दल विचार करें, तो संभवत: वे खुद में कुछ सुधार कर सकें। अन्ना की बातों का सम्मान करने की बजाय सरकार ने जो कुत्सित प्रयास किए, उन सबकी पोल उसी जनता के सामने खुली, जिसने देश की गद्दी सौंपी। सरकार समझ बैठी थी कि वह अन्ना की आवाज को ठीक उसी तरह दबा देगी, जिस तरह बाबा रामदेव की आवाज का गला घोंटा गया, लेकिन वह कामयाब नहीं हो पाई। अगर आगे भी सरकार उसी नीतियों पर चलती रही, तो अभी एक ही अन्ना है, भविष्य में न जाने उसे कितने ‘अन्नाओं’ से टकराना पड़े?