Tuesday, 23 August 2011

अन्ना से सबक लें राजनीतिक दल

प्रकाश अस्थाना

पक्ष और विपक्ष में होने का दम भरने वालों को अब अपनी औकात समझ में आ गई होगी। सभी को पस्त करके अन्ना मस्त होकर अपने तयशुदा आंदोलन में जुट गए हैं। वह देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को समूल नष्ट कर पाएंगे या नहीं, यह अभी समय के गर्भ में है, लेकिन इतना तय है कि देश में अन्ना के बहाने एक वैचारिक क्रांति ने जन्म लिया है। उनकी मुहिम से आजादी के बाद कई बातें पहली बार हुईं। मसलन, कोई गैर राजनीतिज्ञ भी इतनी बड़ी ताकत बनकर उभर सकता है, यह अब कल्पना मात्र नहीं रह गया है। ‘मुन्ना भाई’ को बापू नजर आते थे या नहीं, लेकिन इतना तय है कि अन्ना के रूप में केंद्र की यूपीए सरकार को ‘बापू’ नजर आने लगे हैं। यह कोई ‘केमिकल लोचा’ नहीं है, यथार्थ है। जनता को अन्ना के बहाने केंद्र सरकार की कथित पॉवर और उसकी असलियत जानने का मौका भी पहली बार मिला है। और पहली ही बार हुआ कि विपक्ष होने का दम भरने वालों को अपनी औकात मालूम हो गई है।
यह कैसी अजीब स्थिति है कि बिना कोई जुर्म किए सरकार किसी शख्स को जेल में ठूंस देती है। तर्क यह दिया जाता है कि उसकी हरकतों से शांति भंग होने का खतरा है। कानून की तमाम धाराएं उस पर थोप दी जाती हैं। उस पर तुर्रा यह कि कानून अपना काम कर रहा है, सरकार दखल नहीं दे सकती। लेकिन यह क्या? कुछ ही घंटों बाद सरकार फैसला करती है कि अन्ना को बाइज्जत जेल से रिहा किया जाए? सवाल यह उठता है कि अन्ना को बाइज्जत बरी करने वाली सरकार कौन होती है?
अन्ना गिरफ्तार हुए मजिस्टे्रट के आदेश पर, जहां उन्हें शपथ पत्र भरकर अपनी गलती मानने और निजी मुचलके पर छूटने की ‘सुविधा’ प्रदान की गई। हालांकि, कानून में ऐसा प्रावधान है। परंतु जब उस शख्स ने मना कर दिया, तब क्या जरूरत आन पड़ी कि उन्हें बिना कोई कानूनी औपचारिकता के रिहा कर दिया गया? तब उनकी जमानत किसने दी? शपथ-पत्र किसने भरा? कितनी हास्यास्पद स्थिति है...।
एक बानगी और देखिए! केंद्र सरकार अन्ना को वहां से गिरफ्तार करवाती है, जहां वे ठहरे हुए थे। वे उस समय अनशन स्थल पर गए भी नहीं थे, तो शांति कैसे भंग हुई? बहरहाल, उन्हें गिरफ्तार कराया गया, लेकिन कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के दखल के चंद घंटों बाद ही उन्हें रिहा कराने के फरमान जारी हो जाते हैं। कहा जाता है कि वह कहीं भी जाने को ‘स्वतंत्र’ हैं, परंतु अनशन की लिखित इजाजत फिर भी नहीं मिलती। अन्ना अड़ जाते हैं कि अनशन की बिना इजाजत के वह जेल से बाहर नहीं आएंगे। एक बार फिर सत्तारूढ़ नेताओं में खलबली मच जाती है। मंथन का दौर शुरू होता है। अंतत: सरकार को झुकना पड़ता है। कानून सरकार की गोद में बैठा है, इसलिए बिना किसी औपचारिकता के अन्ना बाहर आते हैं। यह सब क्या है? क्या यही हमारी लोकतांत्रिक सरकार है? दूसरे देशों में वह अपनी करतूतों से ‘उपहास’ का पात्र बनती है, दोष मढ़ा जाता है अन्ना पर।
टीम अन्ना पर विदेशी ताकतों के हाथों खेलने का संगीन आरोप लगता है। लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि कुछ ही घंटों बाद खंडन भी आ जाता है। आखिर, इस जलालत के पीछे की साजिश क्या है? सरकार देखे कि विदेशों में भी अन्ना को भारत का दूसरा ‘बापू’ कहा जाने लगा है। इस देश में अब अपने वजूद के लिए बगलें झांकती राजनीतिक पार्टियों को इस मुहिम से सबक लेना चाहिए।
एक अहम सवाल उठता है कि अन्ना की गिरफ्तारी किसके इशारे पर हुई? किसके इशारे पर उन्हें ‘दया का पात्र’ बनाते हुए छोडऩे का फरमान जारी किया गया? कहीं यह समूचा ड्रामा कांग्रेस के युवराज को ‘नायक’ बनाने की कवायद का हिस्सा तो नहीं?
एक नजर विपक्षी दलों की भूमिका पर! लगभग ‘कोमा’ में जा चुका देश का विपक्ष अन्ना की मुहिम देखकर हतप्रभ है। उसकी क्या भूमिका होनी चाहिए, यह सवाल अब प्रासंगिक हो उठा है। एक बार प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने भी विपक्ष की भूमिका पर कटाक्ष किया था, तब विपक्ष ने काफी शोर मचाया था। तब से आज तक वह सिर्फ शोर ही मचाता आ रहा है। संसद में जनहित के कई गंभीर मामलों के दौरान वह ‘लापता’ रहता है। आज यदि देश भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा है, तो उसके लिए जिम्मेदार हमारा विपक्ष ही है। क्या कहीं आपको ‘विपक्ष’ नजर आता है? लानत भेजिए विपक्ष पर कि देश पर राज करने का ख्वाब पाले हुए इन लोगों को एक कम पढ़े-लिखे व्यक्ति ने ‘जनसमर्थन’ का वास्तविक समीकरण समझाया है। न तो उसका राजनीतिक धरातल है, और न ही कोई वोट बैंक। फिर क्या कारण है कि अन्ना के नाम की आंधी पूरे देश में चल रही है?
यह सच है कि अन्ना के जनलोकपाल बिल के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं, लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि 73 साल का एक बूढ़ा भ्रष्टाचार रूपी दानव के खिलाफ जंग लड़ रहा है। इस देश का लगभग हर आम आदमी भ्रष्टाचार से त्रस्त है। हालांकि भ्रष्टाचार का मुद्दा पहले भी राजनीतिक दलों ने उठाया है, क्या उन्हें इतना व्यापक जनसमर्थन मिला? अन्ना की आवाज में ही लोगों को सच्चाई क्यों नजर आती है? इस विषय को गंभीरता से लेते हुए राजनीतिक दल विचार करें, तो संभवत: वे खुद में कुछ सुधार कर सकें। अन्ना की बातों का सम्मान करने की बजाय सरकार ने जो कुत्सित प्रयास किए, उन सबकी पोल उसी जनता के सामने खुली, जिसने देश की गद्दी सौंपी। सरकार समझ बैठी थी कि वह अन्ना की आवाज को ठीक उसी तरह दबा देगी, जिस तरह बाबा रामदेव की आवाज का गला घोंटा गया, लेकिन वह कामयाब नहीं हो पाई। अगर आगे भी सरकार उसी नीतियों पर चलती रही, तो अभी एक ही अन्ना है, भविष्य में न जाने उसे कितने ‘अन्नाओं’ से टकराना पड़े?

Thursday, 4 August 2011

जी हां, हम आजाद हैं!

प्रकाश अस्थाना

टीवी पर समाचार देखते हुए पता चला कि देश ‘15 अगस्त’ की 64वीं सालगिरह मनाने में व्यस्त है। प्रधानमंत्री लालकिले से भाषण देने के लिए खुद को ‘तैयार’ करवा रहे हैं। यानी, हमें अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाए हुए 64 साल हो गए!
हर साल की तरह इस साल भी हम गाना-बजाना करेंगे, जोश-ओ-खरोश के साथ बच्चे-बूढ़े सभी नाचेंगे और गाएंगे। और वैसे भी ‘नाचने’ में तो इस देश की जनता माहिर है ही, इसलिए हमारे ‘कर्णधारों’ को ज्यादा दिक्कतें पेश नहीं आने वालीं। मैं इसे आजादी का दिवस नहीं, केवल 15 अगस्त ही क गा। मेरा मानना है कि आजाद हम हुए कहां? मुझे कहीं आजादी नजर नहीं आती, यह किस चिड़िया का नाम है? इस राष्ट्रीय जश्न को मनाने के बाद फिर से नेतागण अपने पुराने ढर्रे पर लौट आएंगे, ऐसा मेरा यकीन है। सच तो यह है कि उन्हें लूटकर खाने की आदत पड़ चुकी है, क्या हम उसे मिटा पाने में ‘सक्षम’ हो पाएंगे? आजादी के बाद पिछले 63 सालों में ऊबड़-खाबड़, पथरीली ‘पगडंडी’ पर चलकर हमने जो मुकाम हासिल किए हैं, वे हमारी उपलब्धियां कही तो जा सकती हैं, लेकिन उन पर खुशियां मनाने का कोई कारण नजर नहीं आता। जो सपने आजादी के साथ देखे गए थे, उनका आखिर क्या हुआ? ऐसे कौन से कारण और तत्व हैं, जो आजादी का सारा रस पी गए।
मैं इस शुभ मौके पर उन लोगों की बात बताकर आपको अवसाद में नहीं ले जाना चाहता, लेकिन याद नहीं करूंगा, तो उन लोगों के साथ अन्याय होगा, जिन्होंने हमें ‘कथित आजाद’ भारत में सांस लेने का मौका दिया। मुझे आपकी निंदा से ज्यादा चिंता उन्हीं लोगों की है। मुझे याद आ रहा है कि पिछले साल उत्तराखंड के ऋषिकेश में एक महिला की लाश सड़क किनारे पड़ी मिली थी। आश्चर्य की बात तो यह है कि पुलिस ने लावारिस लाश की रिपोर्ट दर्ज कर उसे बीमारी और भूख से हुई मौत का मामला करार दिया! दिल्ली या मुंबई जैसे महानगरों के लिए ऐसी घटना कोई मायने नहीं रखती, लेकिन उस छोटी सी जगह के लिए वह कुछ दिनों तक चर्चा का विषय बनी रही। लगभग सवा महीने बाद पुलिस को पता चला कि वह लावारिस लाश बीना भौमिक नामक महिला की थी।
बीना भौमिक के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे। मैं भी उस घटना से पहले उसके बारे में कुछ नहीं जानता था। यह वह महिला थी जिसे स्वाधीनता संग्राम के दिनों में ‘अग्नि कन्या’ के नाम से जाना जाता था। उस महिला (तब लड़की) ने 1932 में कोलकाता विश्वविद्यालय में गवर्नर स्टेनली जैक्सन पर बम से हमला किया था। स्टेनली बच तो गया, लेकिन पूरे देश में तहलका मच गया कि एक लड़की ने गवर्नर पर हमला किया। गौरतलब है कि छात्र-छात्राओं में स्वतंत्रता संग्राम के प्रति जज्बा पैदा करने वाली इस लड़की को नौ साल की सज़ा हुई, लेकिन वह जेल से निकलने के बाद युवाओं की ‘हीरो’ बन गई। बाद में युगांतर रेवोल्यूशनरी क्लब की सदस्य भी बनी। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बीना भौमिक को दोबारा तीन साल तक जेल में रहना पड़ा। उसने स्वाधीनता संग्राम में आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।...और एक दिन वह ‘लावारिस मौत’ को गले लगाकर हमसे विदा हो गई। इस तरह की घटनाएं हमें समय-समय पर याद दिलाती हैं कि हां, हम ‘आजाद’ हैं।
मणिपुर की इरोम शर्मिला तो जिंदा है!! वह अपने ही देश में एक दशक से भूख हड़ताल पर है, और राज्य अथवा केंद्र सरकारों से उसे सिर्फ मिल रहे हैं आश्वासन, आश्वासन और आश्वासन। अब तक की सबसे लंबी भूख हड़ताल करने वाली पूर्वोत्तर की इस लड़की ने अपनी जवानी सिर्फ इसलिए ‘खाक’ कर दी ताकि आम नागरिकों पर होने वाले अर्द्धसैनिक बलों के अत्याचार बंद हो सकें। दरअसल, भारत के पूर्वोत्तर में पचास के दशक से चले आ रहे कई पृथकतावादी आंदोलनों की चुनौती से निपटने के लिए उस इलाके में सरकार ने सशस्त्रबल विशेषाधिकार कानून लागू किया हुआ है, जिसके तहत सेना की कार्रवाई किसी भी कानूनी जांच-परख से परे है। हालांकि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का दावा है कि सुरक्षा बल इस कानून का फायदा उठाकर आम बेगुनाहों को निशाना बनाते हैं। इस विशेष कानून पर लगे इन आरोपों की जांच के लिए सरकार ने जीवन रेड्डी समिति भी गठित की थी, जिसकी रिपोर्ट में इस कानून को हटा देने की सिफारिश की गई है। इरोम शर्मिला इस कानून को पूरी तरह से हटाए जाने की मांग को लेकर सन् 2000 से भूख हड़ताल पर है। इस घटना से हमें यह सबक मिलता है कि हम आजाद भारत में सांस ले रहे हैं!
हर साल लता मंगेशकर का गाया गीत-ऐ मेरे वतन के लोगों...विशेष मौके पर सुनाई दे जाता है। मेरे घर के बगल वाले स्कूल में भी कुछ दिनों से बज रहा है। अच्छा लगता है, सुनकर। वाकई लता जी की मधुर आवाज के क्या कहने! ऐसे गीत दो-चार उसी लय में और बनने चाहिए। रोम-रोम देश•ाक्ति की भावना से भर उठता है। लोगों की कुर्बानियां याद आने लगती हैं। लेकिन अफसोस! सरकार को हमारे स्वतंत्रता सेनानी याद नहीं आते। जो स्वतंत्रता सेनानी सरकार के पास ‘रजिस्टर्ड’ हैं, उनमें से बहुत से फर्जी हैं।
सरकार के पास लगभग एक लाख 77 हजार स्वतंत्रता सेनानी दर्ज हैं। यह आंकड़ा हर साल घटता रहता है, क्योंकि वे काफी उम्रदराज हैं, इसलिए हर महीने कुछ लोग आजाद भारत को आखिरी सलाम कर ही जाते हैं। करीब साठ हज़ार स्वतंत्रता सेनानियों को केंद्र द्वारा पेंशन मिल रही है, बाकी को राज्यों द्वारा पेंशन की व्यवस्था है। पेंशन राशि भी अलग अलग है। केंद्र से 12400 रु पये मिलते हैं। हरियाणा में पेंशन राशि छह हजार से बढ़कर 11 हजार हो गई है। इसी तरह कर्नाटक में तीन हजार से बढ़ाकर चार हजार रु पये कर दी गई है। दिल्ली में यह पेंशन पिछले साल साढ़े चार हजार रु पये कर दी गई। दिल्ली में 1998 से ही स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन देने की योजना शुरू की गई थी, लेकिन आज भी यहां पेंशन राशि अन्य राज्यों के मुकाबले काÞफी कम है। तमिलनाडु में इस समय पेंशन पांच हजार रुपये है। मुझे हैरानी नहीं होती कि घोटालों के इस देश में फ्रीडम फाइटरों के हक पर डाका डालने वाले मौजूद हैं यहां। स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर अफसरों की मिलीभगत से बहुत से लोग इस पेंशन राशि से अपनी जेबें भर रहे हैं, जबकि कई स्वतंत्रता सेनानी अपने हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते इस दुनिया से ही विदा हो गए। सबसे शर्मनाक यह कि कई स्वतंत्रता सेनानियों ने खुद को स्वतंत्रता सेनानी साबित करने में अपनी ऐड़ियां रगड़ दीं।
मुझे उस समय एहसास हुआ था कि हम आजाद भारत में सांस ले रहे हैं, जब देश की सर्वोच्च अदालत ने संज्ञान लेते हुए कहा था कि देश के ज्यादातर स्वतंत्रता सेनानी गरीबी और भुखमरी का जीवन बिताने को विवश हैं, सरकार की तरफ से दी जाने वाली पेंशन उनके लिए किसी ‘खैरात’ से कम नहीं है। बहरहाल, आइए! हम सभी ‘शिकवे’ भूलकर 15 अगस्त धूमधाम से मनाएं और अगले का इंतजार करें।

Wednesday, 27 July 2011

खेत में सितारा

पीयूष गुप्ता

पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट का वह पहला छात्र, जिसे उस समय के लीडिंग फिल्म प्रोड्यूसर ने अपनी फिल्म के लिए हीरो चुना। कई फिल्मों में हीरो रहकर आज खेती और बागवानी कर रहा है। उस समय इस हीरो की सफलता से सिर्फ उसके करियर का नहीं, बल्कि पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट का भविष्य भी जुड़ा था। समझौता न करने के स्वभाव के कारण सब कुछ छोड़कर अकबर की पहली राजधानी फतेहपुर सीकरी में वह अपने पैतृक घर लौट आया। अब ये फिल्मी हीरो क्षेत्र की जनता की सेवा का इरादा रखता है, नाम है उसका प्रेमेंद्र उर्फ त्रिलोकी नाथ पाराशर...

अपने समय की हिट हिंदी फिल्म ‘होली आई रे’ देने वाले प्रेमेंद्र मुबंई की चकाचौंध से ऊबकर पत्नी और बच्चों समेत मुंबई छोड़कर अपने घर आगरा लौट आया। फिर अपनी माटी की खुशबू में बंधकर रह गया। पत्नी और बच्चों को फतेहपुर सीकरी जैसा कस्बा कहां रास आता? पत्नी अपने चार बेटे-बेटी में से दो बड़े बच्चों को लेकर अपनी मां के पास लंदन चली गई। खेती और बागवानी की देखभाल को अपना शौक बना चुके प्रेमेंद्र अब दो छोटे भाइयों और उनके परिवार के अलावा होटल व्यवसायी मित्र मोहन अग्रवाल के साथ समय गुजारते हैं। वे खेती में नए प्रयोग कर क्षेत्रीय जनता को नई सीख के साथ-साथ रोजगार के मौके मुहैया कराना चाहते हंै। उनहत्तर वर्र्षीय यह हीरो ज्यादा शारीरिक सक्रियता भले न रख पाए, परंतु फतेहपुर सीकरी में होने वाले हर सामाजिक, राजनैतिक कार्यक्रमों में शिरकत करने और जो कुछ उनके द्वारा हो सकता है, करने का माद्दा रखते हंै। बॉलीवुड के खट्टे-मीठे अनुभव लिए प्रेमेंद्र कहते हैं-इंडस्ट्री के लोग शौहरत और दौलत के पीछे दौड़ते हैं। बाद में कोई किसी को नहीं पूछता। ये विचार जिंदगी की कड़वी हकीकत बयां करते हैं। ...और शायद एकाकीपन की कसक भी।

पीएफआई के तीसरे खेप का स्टूडेंट

त्रिलोकी नाथ पाराशर से प्रेमेंद्र बने इस हीरो ने पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के तीसरे बैच में एक्टिंग के
गुर सीखे थे। पहले बैच में दस कलाकारों की खेप, जिसमें सुभाष घई और असरानी आदि और दूसरे बैच में रेहाना सुल्ताना, जलाल आगा, राकेश पांडे (भोजपुरी फिल्मों के नायक) अपना कोर्स पूरा कर चुके थे, धीरज कुमार (क्रिएटिव आई) अपना कोर्स बीच में छोड़ चुके थे। तीसरे कोर्स में प्रेमेंद्र के साथ शत्रुघ्न सिन्हा थे, लेकिन किसी को हीरो/हीरोइन का रोल नहीं मिला था। लिहाजा, तीसरे बैच के होने के बाद भी लीडिंग रोल झटकने वाले इंस्टीट्यूट के ये पहले छात्र रहे। कोर्स के दौरान ही बैजू बावरा, गूंज उठी शहनाई, हरियाली और रास्ता, हिमालय की गोद में जैसी हिट फिल्में देने वाले विजय भट्ट को त्रिलोकी में मनोज कुमार और धर्मेंद्र का मिला-जुला रूप देखने को मिला। जब विजय भट्ट फिल्म इंस्टीट्यूट आए और उन्होंने प्रेमेंद्र को देखा, तो पहली नजर में अपनी 63वीं फिल्म ‘होली आई रे’ के लिए ताजा चेहरा मिल गया। उससे पहले वे मनोज कुमार को लेकर दो फिल्म बना चुके थे।

बॉलीवुड पहुंचने की कहानी

प्रेमेंद्र की बॉलीवुड पहुंचने की दास्तान भी किसी कहानी से कम नहीं। आगरा कॉलेज में पढ़ने के दौरान एक दिन लेट होने से क्लास मिस होने पर एक दोस्त कैंटीन ले गया, वहां उसने फिल्म इंस्टीट्यूट का विज्ञापन दिखाया और छह फीट डेढ़ इंच लंबे, गोरे और सुंदर प्रेमेंद्र को हीरो बनने का विश्वास जताया। आॅडिशन में भी लेट पहुंचे प्रेमेंद्र की किस्मत ने साथ दिया। आॅडिशन खत्म होते होते इनका भी आॅडिशन हो गया। कोर्स में एडमिशन के बाद जब फिल्म के लिए सलेक्शन हो गया और विजय भट्ट के बुलावे पर मुंबई पहुंचे, तो ज्यादातर हीरो बनने वालों की तरह मजबूरी में पहली रात सड़क पर गुजारनी चाही, लेकिन पुलिस ने पार्क में रात नहीं गुजारने दी। फिर स्टेशन जाकर रात गुजारी। अगले दिन विजय भट्ट से मुलाकात होने पर सब ठीक हो गया।

प्रेमेंद्र बॉलीवुड के अकेले नए हीरो (डेव्यू) रहे, जिनकी दो फिल्में एकसाथ एक ही दिन रिलीज हुईं। ये फिल्में थीं ‘होली आई रे’ और ‘दीदार’। सन् 1970 में दीवाली से एक सप्ताह पहले ये फिल्म रिलीज हुईं। ‘होली आई रे’ में फिल्म में प्रेमेंद्र के साथ माला सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, बलराज साहनी और कल्याणजी आनंदजी के संगीत से सजी यह विजय भट्ट की फिल्म थी, जो उस समय के सबसे बड़े बैनर थे। ‘दीदार’ में अंजना प्रेमेंद्र के अपोजिट थीं। ऊषा खन्ना के संगीत की स्वर लहरियों से सजी यह जुगल किशोर निर्देशित थी। ‘साज और सनम’ में प्रेमेंद्र के अपोजिट रेखा थीं। ‘दुनिया क्या जाने’ फिल्म शंकर जयकिशन के संगीत से सजी श्रीधर निर्देशित थी। श्रीधर इससे पहले ‘नजराना’, ‘दिल एक मंदिर’ जैसी तमाम नामी फिल्में बना चुके थे। प्रेमेंद्र की ‘जोगी’ सबसे आखिर में आने वाली फिल्म रही।

स्टार भी बन गया जोगी

जोगी के बाद यह स्टार भी जोगी बन गया। यहीं से इसका बॉलीवुड से सन्यास हो गया। फिल्म अपेक्षित सफलता नहीं पा पाई। हीरो की जगह सह कलाकार और विलेन बनने के कई आॅफर मिले। उनकी जिद थी कि लीड रोल ही चाहिए। बॉलीवुड में सिर्फ सुंदरता और व्यक्तित्व के कोई मायने नहीं। वहां व्यावसायिक सफलता जरुरी है। प्रेमेंद्र को मलाल है कि उनके नाम से रिकॉर्ड हुआ गाना दूसरे को मिल जाने से उनका हार्डलक शुरु हो गया। गाना था ‘मेरी तमन्नाओं की तकदीर तुम संवार दो, प्यासी है जिंदगी और मुझे प्यार दो। ’


प्रेमेंद्र का परिवार एक नजर में...

प्रेमेंद्र के परिवार में पत्नी के अलावा दो बेटे और दो बेटी हंै। चारों बच्चों की शादी हो चुकी है। पत्नी मंदाकिनी फिल्म इंडस्ट्री में नाम कमाने की चाहत के चलते मिलीं। प्रेमेंद्र को पाने के बाद जैसे मंजिल मिल गई। फिल्म का शौक कब कहां चला गया, पता ही नहीं चला। सबसे बड़ी बेटी, फिर बेटा, फिर दूसरा बेटा और आखिर में एक और बेटी के बाद फुल स्टाप। सबसे बड़ी बेटी ने लंदन में डिपार्टर्मेंटल स्टोर के कारोबारी से शादी की। बड़े बेटे ने थोड़ी-बहुत कला की विरासत संभाली। बड़ा बेटे ऋषि पाराशर ने एक गुजराती फिल्म में अभिनय किया। ईटीवी उर्दू के सीरियल हमारी जीनत और दूरदर्शन के लिए नवाब सिराजुद्दौला में काम किया। फिल्मों में और छोटे-मोटे रोल वाली भूमिकाएं पाने के बाद उसे भी फिल्मी सफर रास नहीं आया और वह भी लंदन में सैटल हो गया। दूसरा बेटा रिटेल मार्केटिंग में बड़ा अधिकारी है। सबसे छोटी बेटी ने लगेज इंडस्ट्री के बड़े अधिकारी से शादी कर ली। प्रेमेंद्र के 2001 में फतेहपुर सीकरी आ जाने के बाद सास ने अपनी बेटी को समझाया कि अगर ढंग से जीना है, तो लंदन में बसो। दोनों बड़े बच्चों के साथ पत्नी लंदन जा बसी। अब वहां धार्मिक आयोजन (भजन और प्रवचन) का ग्रुप चलाकर अपनी भौतिक और आध्यात्मिक संतुष्टि करती हैं। बड़ा बेटा भी उनके साथ है।